Thursday, May 28, 2015

'When there is no War, Sharpen your Weapons'.

                           I am working as an Editor/Assistant Director in Punjabi film industry. Unlike Bollywood, our film industry is very small . Small not only in budget sense but less productions per year too. I have been part of this industry from last 8 years now and still can't consider myself as settled in the industry. The reason i see for this is that i have always wanted to be part of good projects & i have not done projects just for money. That is the reason that i have done much less number of projects than my fellow colleagues.

                           Some of my friends who started after me, have become directors now. I am not jealous of them. Because i think, the kind of films they are doing, shouldn't be called films. Most of the producers in Punjabi film industry are from Real Estate background who want to earn profits like they earn in real estate business. film industry doesn't work that way. The so called directors take advantage of this insensibility of the producers & become directors overnight. Thats why the success ratio of punjabi films is so poor. Directors in Punjabi film industry don't have good stories to tell, don't have good skills to execute a production. They just want to survive by making films, by making producers fool.

                           I too want to make a film some day. But i am in no hurry. I am going at my own pace & preparing myself fully to do a film. After all, Filmmaking is a big big responsibility. Till then, I am surviving by doing editing, working as A.D.

                           And for my own growth, i read, write, & sharpen my technical skills whenever i get time in between. I don't waste my energy in getting projects & marketing myself. I think, i may do less work in this way but, whenever i will make a film, it will be a good one.

                         The summers have arrived & there is very less shooting happening in punjab these days because of extreme weather. So i am making most of this time as i have started working on a script & reading some articles on filmmaking. I remember an old saying 'When there is no War, Sharpen your Weapons'. I am sharpening my weapon so that whenever there will be War, I win that War. 

Saturday, May 23, 2015

मैं और वो छिपकली !!

                                  हम भारत में रहते हैं, यूरोप में नहीं, जहाँ तापमान 0० हो जाये तो  गर्मी हो गयी। भारत में तो हर मौसम मिल जाता है। हर मौसम का आनंद लिया जा सकता है। आनंद ? नहीं, आनंद कहना ग़लत होगा। हर मौसम को झेलना पड़ता है। मैं झेलना शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ क्यूंकि सबको हर मौसम अच्छा नहीं लगता।

                                  सभी की तरह, मुझे भी सभी मौसम अच्छे नहीं लगते। पर जो मौसम सबसे बुरा लगता है, वो है गर्मी। इसके पीछे  कारण हैं। जैसे कि  सीज़न में काम कम हो है और खर्च बढ़ जाता है। सब्ज़ियाँ अच्छी नहीं लगती, रोज़ ही घीया, टिंडे, तोरियां इत्यादि। कहीं बाहर जाने का मन नहीं करता। पर, मुझे जो सबसे बड़ा कारण लगता है गर्मियां नापसंद होने का, वो है गर्मियों में होने वाले कीड़े जैसे की मच्छर, मख्खियां, मेंढक और सबसे ज़्यादा नफरत है छिपकलियों से।

                                मैं जहाँ रहता हूँ, ये एक बी.एस.एन.एल का सरकारी मकान है। घर का निर्माण लगभग 40 साल पुराना है। हालाँकि ऐसे घर में रहने का मन नहीं करता पर चण्डीगढ़ जैसे शहर में अपना मकान होना भी आसान नहीं है जी। माँ को मिला हुआ है ये मकान। वो बी.एस.एन.एल में कार्यरत हैं। अभी 5 साल की सर्विस बाकी है। मतलब 5 साल और इस मकान में। पुराना मकान होने की वजह से छिपकलियों छुपने के लिए बोहोत सी जगहें मिल जाती हैं। वैसे छिपकलियां तो कहीं भी आ जाती हैं, उन्हें किसी पासपोर्ट की ज़रुरत थोड़ा है। पर पुराने मकान में थोड़ी ज़्यादा होती हैं।

                               जब आप छिपकली से डरते हो, तो अगर वो आपको दिख जाये, तो आपकी नज़रें तब तक उस पर रहती हैं, जब तक कि वो कहीं गायब न हो जाये। मेरे साथ तो ऐसा अक्सर होता है। जब छिपकली मेरे आस पास हो तो मैं उसको देखते रहने के सिवा कुछ नहीं कर पाता। कहीं ध्यान नहीं लगा पाता। मेरा बस चले तो इन छिपकलियों को घर में घुसने ही न दूँ। अब आप कहेंगे कि छिपकलियों के कई फायदे भी हैं , छिपकलियां न होती तो मच्छर, मक्खियाँ कितनी जादा होती। एक तरीके से छिपकलियाँ ज़रूरी भी हैं। मैं आपकी हर बात मानता हूँ, पर क्या वो थोड़ी कम बदसूरत नहीं हो सकती थी। खैर उसकी जैसी भी बनावट है,हम कुछ नहीं कर सकते।

                             कल मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ जिसके बाद मुझे छिपकली से उतनी नफरत नहीं रही। डरता अभी भी हूँ , पर नफरत नहीं करता। हुआ यह कि कल अचानक मेरी नज़र एक छिपकली पर पड़ी जो शायद मेरे कमरे के रौशनदान में फंसी हुयी थी। बहुत छटपटा रही थी , पर निकल नहीं पा रही थी। मैं उसको देख कर बहुत घबरा गया और तरस आने लगा। एक बार मैंने सोचा की अगर मैं किसी तरीके से रौशनदान खोल दूँ, तो छिपकली बच सकती है। पर इतना पास जाना मुझे डरा रहा था। मैं छिपकली से दूर भागता हूँ। डर लग रहा था की कहीं छिपकली मुझ पर ही न कूद पड़े खतरा समझ कर। पर अगर न गया तो, तो वो मर जाएगी। बहुत बुरी तरह से बहार निकलने की कोशिश कर रही थी। मैं उसे अपनी आंखो के सामने ऐसे तड़पते हुए नहीं सेख सकता था। उसके दर्द को महसूस करने लगा था मैं।

                           कोशिश करके मैंने बड़े धीरे से रौशनदान ऊपर उठा दिया। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला, वो ऐसे भागी जैसे न जाने कब से फंसी हो। मैंने भी उसके छूट जाने पर राहत की सांस ली। 

                           कल से वो अभी तक दोबारा नहीं दिखी। शायद डर कर कहीं छुप गयी है या शायद उसने भी उस घडी में ये समझ लिया होगा कि ये बंदा मुझसे डर रहा है और मुझे यहाँ आकर इसको परेशान नहीं करना चाहिए। सोच रहा हूँ कि काश सच में वो छिपकली इतनी समझदार हो। 

Sunday, May 17, 2015

मोदी सरकार का एक साल (क्या खोया, क्या पाया )

बात एक साल पहले की है जब हमारा देश हर तरीके की मुसीबत से जूझ रहा था। हमारा नाम दुनिया के सबसे भ्रष्ठ देशों में लिया जाता था। हमारी बहनें बेटियां सुरक्षित नहीं थी। नौजवानो के पास काम नहीं था और हमारा प्रधानमंत्री बोलता नहीं था। लोग बहुत दुखी थे और अपनी हर परेशानी के लिए सरकार को कोसते थे।

                                         पिछले साल, आज ही के दिन, हम लोगो ने नयी सरकार चुनी। भारत के लोकतंत्र के इतिहास में किसी भी सरकार को इतना बड़ा बहुमत नहीं मिला था। इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की लोग पिछली सरकार से कितने दुखी थे।

खैर, बड़े बड़े वादों और सपनो को दिखाकर नरेंद्र मोदी हमारे नए प्रधानमंत्री बने। उन्होंने अपने भाषणो में कहा कि वो भारत को भ्रष्टाचार मुक्त, महिलाओं के लिए सुरक्षित, किसान का साथी, विकासशील, प्रगतिशील और संस्कृति से जुड़ा हुआ देश बनाएंगे। ये भी वादा किया कि विदेशों में पड़ा काला धन भारत वापिस लाया जायेगा, वो भी केवल 100 दिन में। अब भरोसे से कहिये, या लालच में, देश के लोगो ने उन्हें एक मौका दिया। अब उनकी बारी थी भरोसा जीतने की। मोदी        सरकार ने नारा दिया था 'अच्छे दिन आने वाले हैं '

                                       26 मई से सरकार ने अपना काम शुरू किया। और पहले ही दिन मोदी जी ने एक कमेटी का गठन किया जो काले धन का पता लगाएगी। लोगो को लगा की सच में 100 दिन में देश का सारा काला धन देश में वापिस होगा और सबको 15-15 लाख रूपये मिलेंगे जैसा की मोदी जी ने अपने भाषणों में वादा किया था। तेल के दाम कम हो गए जो पिछली सरकार के समय में आसमान को छू रहे थे। ये तो सच में अच्छे दिनों की शुरुआत हो गयी थी। स्वच्छ भारत अभियान , राष्ट्रीय जान धन योजना, मेक इन इंडिया कैम्पेन से ऐसा लगा की देश की सारी गन्दगी साफ़ हो जाएगी और हम भी यूरोप के किसी देश की तरह दिखने लगेंगे, देश का युवक बेरोज़गार नहीं रहेगा और बैंक खाता खोलने का मतलब ये समझा गया कि 15-15 लाख रुपये आएंगे तो खाता तो चाहिए न।

बस जी अच्छे दिनों का सपना इतना ही था। अब सच्चाई से सामना करने का वक़्त था। देश में सांप्रदायिक माहौल गड़बड़ाने लगा। हिन्दुओं को छोड़कर सभी धर्म और जाति के लोगो पर हमले होने लगे। ईसाई चर्चों पे हमले के किस्से हम रोज़ ही सुनते हैं। आर.एस.एस और अन्य हिन्दू संगठनो के ताकत में आने से मुस्लिम भी डरे हुए हैं। दलितों की हालत भी बद से बत्तर हो गयी है।घर वापसी जैसे घटिया कार्यक्रम चला कर हिन्दू-मुसलमानो को भड़काया जा रहा है। 

विकास के नाम पर, स्मार्ट सिटी के नाम पर गरीब किसानो से ज़मीनें छीन कर उन चंद पूंजीपतियों को देने की तैयारी है जिन्होंने मोदी सरकार को बनाने में अपनी पूँजी लगायी थी। लैंड ऑर्डिनेंस बिल को पूरी तरह से किसान विरोधी बनाया गया। किसानो के आत्महत्या करने का सिलसिला जारी है। फसलों की बर्बादी का कोई मुआवज़ा सरकार ने अभी तक किसानो को नहीं दिया। 



देश में लड़कियों के रेप लगातार जारी हैं और सरकार खामोश है। कानून व्यवस्था सिर्फ अमीर लोगो की दासी बन कर रह गयी है। मोगा बस काण्ड और सलमान खान के केस में उनको जल्दी बेल मिल जाना इसके ताज़ा उदाहरण हैं। 






एक नया पैसा भारत में नहीं आया जिसको इस सरकार ने 100 दिन में लाने का सपना दिखाया था। अब पूछे जाने पर इनकी पार्टी के नेता कहते हैं कि काला धन लाना आसान काम नहीं है। हम तो जानते थे मोदी जी, आपने वादा क्यों किया था ? 







स्वच्छ भारत अभियान की धज्जियाँ उड़ चुकी हैं। देश के पिछड़े इलाकों को छोड़ दीजिये, महानगरों में भी गन्दगी का बुरा हाल है। 






                                  मोदी जी पिछले 1 साल में ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, चीन और कई देशों का दौरा कर चुके हैं। कहा जा रहा है की मोदी जी वहां मेक इन इंडिया के नाम पर व्यापारियों और पूंजीपतियों को लुभाने के लिए ये दौरे कर रहे हैं। पर आज तक एक भी इन्वेस्टमेंट भारत में नहीं हो पाया है सर। देश में ये मज़ाक बनने लगा है की हमारे प्रधानमंत्री भारत कभी कभी आते हैं। जब घर की हालत ठीक नहीं, तो बाहर क्यों जा रहे हैं सर ? देश     

                                                                                         का बेरोज़गार नागरिक तो आज भी बेरोज़गार ही है।  


पेट्रोल और डीजल की कीमतें ज्यों की त्यों हो रही हैं।  दरअसल साल के शुरू में सस्ते तेल का कारण अंतर्राष्ट्रीय मंडी में कच्चे तेल में गिरावट थी , जिसका श्रेय भी मोदी सरकार ने अपने सर ले लिया था। मेहेंगाई पर कोई लगाम नहीं लगायी जा पायी है। रोज़ मर्रा का सामान भी आम इंसान की हैसियत से दूर होता जा रहा है। 





कुल मिला कर देखा जाये तो मोदी सरकार के उस विकास के गुब्बारे की हवा निकल चुकी है। देश आज भी वैसा ही है, जैसा एक साल पहले था। हमें तो ज़मीन पर कोई बदलाव नज़र नहीं आ रहा। बल्कि हालात और खराब हुए हैं। खैर , अभी तो 4 साल और बाकी हैं। मोदी जी कहते हैं की बदलाव नज़र आने में थोड़ा समय लगेगा। शायद अभी मोदी जी वो चश्मा नहीं ढूंढ पाये हैं जो हमारी आँखों पर चढ़ा कर हमें वो भारत दिखाएँ जिसकी हम कल्पना करते हैं। 4 साल और हैं मोदी जी, चश्मा बनवा लीजिये !!



Wednesday, May 13, 2015

मेरी लड़ाई !!

                                  मैं जब बारहवीं कक्षा  में था, तभी मैंने एक दिन ये फैसला किया कि मुझे मेरे जीवन के साथ क्या करना है। एक दिन स्कूल से घर आते ही मैंने अपनी माँ से कह दिया की मुझे एक फिल्म निर्देशक बनना है, मुझे  इसके बारे में क्या पढ़ा जाता है, कहाँ पढ़ा जाता है, बस मुझे फिल्में बनानी हैं। माँ ने मुझे प्यार से समझाया की ये फिल्में बनाना आसान काम नहीं होता, रोज़ी-रोटी का कुछ पता नहीं और समाज में इसे अछा काम नहीं समझा जाता।  पर मैं तो अड़ा था।
                                  दरअसल हुआ ये कि स्कूल में मुझे फिल्मो के डायलाग दोस्तों को सुनाने का बड़ा शौक था, फोटोग्राफी का भी शौक था। तो एक दिन मेरे किसी मित्र ने बोला की मुझे अपना करियर फिल्म लाइन में ही बनाना चाहिए। सभी की तरह मुझे भी शाहरुख़ खान और आमिर खान बोहोत अचे अभिनेता लगते थे। पर इतना मैं समझ गया था कि उनको हीरो उनके डायरेक्टर बनाते हैं। वे  केवल डायरेक्टर के हाथो की कठपुतलियां होते हैं। इसलिए मैंने हीरो न बनकर, डायरेक्टर बनने का फैसला किया। माँ ने पूछा कि डायरेक्टर का काम अच्छी कहानी लिखना भी होता है, तो इस पर मेरा जवाब था की मैं भी अच्छी कहानी लिख सकता हूँ। बस फिर क्या था, मैं सपने देखने लगा एक बड़ा डायरेक्टर बनने के। मुझे मसाला फिल्में ही देखने का शौक था, जो सिनेमा की समझ के साथ साथ जाता रहा। समझ में आया की सिनेमा के और भी रंग हैं और धीरे धीरे समझ में आने लगा की मुझे किस किस्म का सिनेमा देखना अच्छा लगता है, और किस किस्म का सिनेमा बनाना है।
                
                                माँ ने हामी तो भर दी थी, पर ये कह दिया की जो भी करना है ग्रेजुएशन के बाद करना। इसलिए मुझे ३ साल के लिए और इंतज़ार करना था। फिल्म का कीड़ा एक बार काट ले, तो काट ही लेता है।  उसका कोई इलाज नहीं, पढाई में मेरा मन नहीं लगता था और मैंने अपने सपने को जीना शुरू कर दिया ग्रेजुएशन छोड़ कर। हालाँकि बाद में मुझे ग्रेजुएट होने की एहमियत भी अच्छी तरह से समझ आ गयी थी।

                              जब एक छोटे से फिल्म इंस्टिट्यूट से फिल्ममेकिंग का कोर्स किया तो ऐसा लगा की मैं दुनिआ का सबसे महान डायरेक्टर बन जाऊंगा, बस वक़्त आने दो। सपनो की उड़ान और ऊंची हो गयी थी। कोर्स करते ही मुझे एक पंजाबी फिल्म 'एक नूर' में बतौर सहायक निर्देशक काम करने का मौका मिला। सच में उस फिल्म में मैंने फिल्म बनाने के बारे में बहुत कुछ प्रैक्टिकली सीखा। मैं जो कुछ भी बन पाउँगा, उस फिल्म और उस फिल्म से जुड़े सभी लोगो का हमेशा आभारी रहूँगा। फिल्म करने के बाद मुझे ऐसा लगा की मेरे लिए तो हर रास्ता खुला है, लोग मुझे काम देने के लिए इंतज़ार कर रहे है, पर ऐसा कुछ नहीं था, बहुत जल्दी हक़ीक़त मेरे सामने थी। फिल्म करने के बाद मैं घर पे बैठा था, ४-५ महीने तक कुछ काम नहीं था, समझ में आने लगा था की क्यों लोग कहते हैं की फिल्म लाइन में सबको धक्के खाने पड़ते हैं।  तब मैं करीब २३ वर्ष का था, घर पे किसी ने मुझे मुंबई जा के अपनी किस्मत आज़माने का हौसला नहीं दिया, और मुझे भी लगता था की पंजाब में ही फिल्म इंडस्ट्री कड़ी हो जाएगी, मुझे मुंबई जाना ही नहीं पड़ेगा काम के लिए।

                          मेरी कोशिश किसी न किसी डायरेक्टर का सहायक बनने की ही लगी रही। कभी खुद की लघु फिल्म बनाने का प्रयास तक नहीं किया। फिल्म स्कूल में बताया था की अपना जौहर दिखाने के लिए आपको लघु फिल्में बनानी ही पड़ेंगी।  पर मैं कभी लघु फिल्म नहीं बना पाया। फिर मैंने कुछ देर एक चैनल में एडिटर की नौकरी कर ली। उस दौरान मुझे समझ में आया कि जो आज़ादी फिल्म के सेट पर होती है, वह चैनल की नौकरी में नहीं। चैनल छोड़ दिया और फिर से फिल्मों का राह पकड़ लिया। चैनल में मैं हमारे सर राजीव शर्मा जी से मिला जो की एक फिल्म बनाने जा रहे थे। मैंने उनसे अनुरोध किया की वे मुझे अपनी फिल्म में सहायक निर्देशक रख लें, और वे राज़ी हो गए। बस, मैंने चैनल छोड़ दिया और उन्ही के साथ हो लिया।

                         उसके बाद मैंने पिछले ३ सालों में ३ फिल्मे राजीव जी के साथ और ३ फिल्में अन्य फिल्मकारों के साथ की हैं। ३ सालों के हिसाब से ये बहुत कम काम है , पैसा भी ज़्यादा नहीं मिला पर मैं खुश था, क्युकी मैं अब वो कर रहा था जो मुझे करना था। इसी बीच घर पे मां ने ताने देना शुरू कर दिया की तेरे दोस्त जो तेरे साथ पढ़ते थे, सब इंजीनियरिंग करके प्राइवेट आईटी कंपनियों में अच्छी तनख्वाह ले रहे हैं , क्या मिला तुझे ये फिल्म लाइन में जा के? मैं माँ को समझाता की माँ हर किसी को सेट होने में अपना अपना समय लगता है, मैं भी हो जाऊंगा, थोड़ा सब्र रखो. माँ और कर भी क्या सकती थी?

                        खैर, मेरी जंग जारी रही, माँ भी बोलती रही। आज मुझे ७ साल हो गए हैं फिल्म लाइन में। अपनी फिल्म अभी तक नहीं बनी , पर सहायक के तौर पे और एडिटर के तौर पे काम जारी है।  जल्दी ही अपनी भी फिल्म बनाऊंगा। सच में। इस बार इतने साल नहीं लगेंगे। सपने भी देखता रहूँगा, कोशिश भी करूँगा उन्हें पूरा करने की। मैं अभी तक फिल्म नहीं बना पाया उसका सबसे बड़ा कारण मुझे लगता है कि मैं दूसरों पर बहुत ज़्यादा निर्भर हो जाया हूँ। पर अब समझ में आ गया है की ये मेरी ही लड़ाई है, मुझे ही लड़नी होगी। इस लड़ाई में उतरने का फैसला भी मेरा ही तो था !!